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Friday, 30 December 2011

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है / अदम गोंडवी

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

Saturday, 24 December 2011

स्वतंत्रता दिवस की पुकार / अटल बिहारी वाजपेयी

पन्द्रह अगस्त का दिन कहता -
आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं,
रावी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर
आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश
ग़म की काली बदली छाई॥

कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के
बारे में क्या कहते हैं॥

हिन्दू के नाते उनका दुख
सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो
सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

इंसान जहाँ बेचा जाता,
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,
डालर मन में मुस्काता है॥

भूखों को गोली नंगों को
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी
नारे लगवाए जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूँ
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आजादी पर्व मनाएँगे॥

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से
कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ,
जो खोया उसका ध्यान करें॥

Who is to blame for poverty in Africa?

In the forward to this year's Africa Progress Report, Kofi Annan puts the emphasis on African leaders to improve poverty levels and meet Millennium Development Goal commitments. But will his words have impact?

"Good governance and accountability will determine Africa's future."
This is the standout statement in the Africa Progress Report 2010 (APR), published by the Africa Progress Panel (APP) last week.
Formed in 2005 in the wake of the Gleneagles G8 summit, the APP seeks to promote "Africa's development by tracking progress, drawing attention to opportunities and catalysing action".
In terms of Africa's progress, the report had much to boast about: the last decade ushered in economic growth across much of the continent. Kofi Annan, former UN secretary general and chairman of the APP, described Africa as "a new economic frontier", thanks to continued discoveries of natural resources, an ever-growing list of new partners, such as China and the steady rise in domestic revenues, foreign direct investment, remittances and official development assistance (ODA) – or aid.
But these achievements have not eradicated Africa's ills and the report set out to address why.
"Why does progress on achievement of the Millennium Development Goals (MDGs) remain so low, so uneven? Why do the absolute and relative numbers of people living in poverty remain so high? Why do so many people face food and nutrition, joblessness and minimal access to basic services such as energy, clean water, healthcare and education? Why are so many women marginalised and disenfranchised? And why is inequality increasing?" Annan asked in the forward to the report.
He concluded that the root causes of Africa's problems were a lack of political will and the inability of the continent's leaders to use revenues to benefit the people.
"Responsibility for driving equitable growth and for investing in achievement of the MDG targets rests firmly with Africa's political leaders," Annan added.
It's not the first time this sentiment has been expressed, but will Annan's words and the central message of this report have more impact because of who they are being directly aimed at? This report is written with African leaders - in government, business and civil society – very much in mind.
Support for development and Africa's economic success have both been hit by the economic crisis. The crisis, says the report, "highlighted a number of worrisome trends... such as growing inequality, setbacks in achieving MDGs, vulnerability... concerns that economic contraction squeezes out commitment to human development". In the downturn, the need for good governance to mitigate the damage becomes essential and Africa leaders have been shown to be wanting.
While the report continues to call on donors to uphold their MDG commitments and the Gleneagles declarations (speaking of which, the point about aid commitments appears to have been left off the draft communiqué for this month's G8 summit) and emphasises the numerous agreements signed by the continent's leaders to improve transparency, accountability and pro-poor growth in Africa, the key message is that there needs to be greater political will to achieve long-term success.
But if development is a question of political will, then Africa needs political transformation fast. But this won't be easy.

काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में / अदम गोंडवी

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

सुधार पर हावी सियासत

मेरे पुराने मित्र मनमोहन सिंह इस वक्त आखिर क्या सोच रहे होंगे? क्या अब समय आ गया है कि वे भारत के प्रधानमंत्री पद के दायित्व से मुक्त हो जाएं और 40 वर्षो की शीर्षस्तरीय लोकसेवा के बाद रिटायरमेंट ले लें? या क्या उन्हें और सोनिया गांधी के कांग्रेस-नीत गठबंधन को इस उम्मीद में मध्यावधि चुनाव करा लेना चाहिए कि शायद युवा राजनेता सामने आएं और अपने ताजगीभरे विचारों के साथ भारत को २१वीं सदी की आकांक्षाओं और संभावनाओं तक ले जाएं? ये तमाम सवाल हाल की घटनाओं के बाद उठे हैं।

मनमोहन सिंह ने प्रस्ताव रखा था कि 500 अरब डॉलर कीमत के विशाल भारतीय रिटेल बाजार को सौ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल दिया जाए, लेकिन कुछ ही दिनों बाद उन्हें यू-टर्न लेते हुए अपने इस विचार को त्यागना पड़ा। यहां चिंता का विषय रिटेल सेक्टर नहीं होना चाहिए। न ही चिंतनीय पक्ष यह है कि भारत सभी विदेशी निवेशकों के लिए अपने दरवाजे बंद कर देगा। चिंतनीय मसला राजनीतिक है।

आखिर ऐसा कैसे संभव है कि एक ऐसी सरकार, जिसके पास पर्याप्त बहुमत है, राजनीतिक परिदृश्य के साथ ही अपने ही खेमे में मौजूद विपक्षी स्वरों को भी पहचान नहीं सकी? जो सरकार इतने कम अंतराल में अपने इरादों से पीछे हट सकती है, उस पर आखिर कितना भरोसा किया जा सकता है?

बहुराष्ट्रीय उत्पादों से लदे चमचमाते शॉपिंग मॉल्स का जादू निश्चित ही भारत के बड़े शहरों और उनके उपनगरों के सिर चढ़कर बोल रहा है। महानगरों के बाहर भारत का खुला बाजार भी असीमित अवसरों और संभावनाओं से भरा पड़ा है। इनमें क्षति की संभावनाएं भी कम नहीं हैं।

भारत के योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलुवालिया अनुमान लगाते हैं कि भारत की ४क् फीसदी खाद्य सामग्री बाजार तक पहुंचते-पहुंचते ही खराब हो जाती है और इसकी वजह है खराब सड़कें और अनुपयुक्त स्टोरेज। इसीलिए इस विचार ने बल पकड़ा था कि विदेशी निवेशकों को निमंत्रित कर क्वालिटी कंट्रोल की दिशा में प्रयास किए जाएं, ताकि उपभोक्ताओं तक अच्छी गुणवत्ता का उत्पाद पहुंच सके और किसानों को भी अच्छा रिटर्न मिले।

इस विचार का विरोध करने वालों ने जो भयावह तस्वीर पेश की, वह यह थी कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का एक आधुनिक संस्करण भारत को लूटने-खसोटने के लिए उसकी ओर कूच कर रहा है। यह हास्यास्पद था। बड़े विदेशी निवेशकों की तात्कालिक प्रतिक्रिया यह थी कि कहीं सौ फीसदी एफडीआई का प्रस्ताव भी लाल फीते की चपेट में न आ जाए। आखिर यही हुआ।

खेत से बाजार तक खाद्य सामग्री पहुंचने की प्रक्रिया रॉकेट साइंस की तरह जटिल नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भारतीय विदेशियों की तुलना में यह ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं कि यदि आपको पता न हो कि किसान अपने खेतों में क्या उगा रहे हैं तो यह सरल-सी प्रक्रिया भी बड़ी दुष्कर सिद्ध हो सकती है।

इसकी वजह है किसानों की आर्थिक तंगी, मानसून पर निर्भरता, खराब सड़कें और बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं का चिंतनीय अभाव। भारत सांस्कृतिक और भाषिक बहुलता वाला एक विशाल और जटिल देश है। यहां ३क् करोड़ लोगों का मध्यवर्ग जहां २१वीं सदी के फैशन और उत्पादों के लिए लालायित है, वहीं एक बड़ा वर्ग उन लोगों का भी है, जिन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है और प्राथमिक स्तर की शिक्षा की चिंतनीय स्थिति के कारण वे अपने लिए अच्छी नौकरियां नहीं तलाश पाते।

इस दलील में कोई दम नहीं है कि विदेशी निवेशकों के कारण भारत की रिटेल क्रांति को एक प्रतिस्पर्धात्मक स्वरूप मिलेगा। भारत को बहुत बुनियादी चीजों पर काम करने की जरूरत है, जैसे सड़कें, शिक्षा, बिजली, किसानों का सशक्तीकरण, ताकि बिचौलिये उन्हें छल न सकें।

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कारण भारत के बुनियादी ढांचे में कुछ सुधार आ सकता था। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि भारत की राजनीति में जिन मध्यस्थों का वर्चस्व है, उन्होंने इस पूरी बहस को हाइर्जैक कर लिया। उन्होंने खुद को किराना दुकानों के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन वे यह भूल गए कि देश के सबसे गरीब देहाती इलाकों में इस तरह की दुकानें तक नहीं हैं।

वहीं वे यह भी भूल गए कि भारत के उपभोक्ता बेहतर सेवाएं और श्रेष्ठ सस्ते उत्पाद पाना चाहते हैं। विदेशी निवेश पर राजनीतिक निर्णयों को उन्हीं मध्यस्थों द्वारा प्रभावित किया गया, जो जाति, क्षेत्र, धर्म के आधार पर सियासत करते हैं और अपनी जेबें भरते हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री ने उनके सामने घुटने टेक दिए और देश में सुधारों का पथ प्रशस्त करने के अपने प्राथमिक दायित्व को तिलांजलि दे दी।

मैं उन्हें पिछले चालीस सालों से जानता हूं, जब वे सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे। यह एक अर्थशास्त्री और राजनयिक के लिए शीर्ष पद जरूर हो सकता है, लेकिन एक राजनेता के लिए नहीं। भारत के वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने आर्थिक सुधारों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

वे भद्र व्यक्ति हैं और संभवत: नौकरशाही की नकेल कसने में भी सक्षम हैं, लेकिन वे भ्रष्टाचार के उस परिवेश में खुद को अपरिचित महसूस करते हैं, जो अब भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली का हिस्सा बन चुका है। हाल के दिनों तक मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी का पूर्ण राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था। लेकिन विचित्र बात है कि एकाध अवसरों को छोड़ दें तो सोनिया गांधी ने अमेरिका से अपना इलाज कराकर लौटने के बाद से ही सुर्खियों में जगह नहीं बनाई है।

रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर जो स्थिति बनी, उससे यह भी जाहिर हुआ है कि मनमोहन सिंह अब थक रहे हैं और समय आ गया है कि सोनिया के पुत्र राहुल गांधी और उनके युवा साथी अपनी योग्यता सिद्ध करें। लेकिन यह भी विचित्र बात ही है कि राहुल गांधी, जो कि कांग्रेस के महासचिव भी हैं, भी चुप्पी साधे हुए हैं। -लेखक विश्व बैंक के पूर्व मैनेजिंग एडिटर व प्लेनवर्डस मीडिया के एडिटर इन चीफ हैं।

- केविन रैफर्टी  

Friday, 23 December 2011

सफल नेता / काका हाथरसी

सफल राजनीतिज्ञ वह जो जन गण में व्याप्त ।
जिस पद को वह पकड़ ले कभी न होय समाप्त ॥
कभी न होय समाप्त, घुमाए पहिया ऐसा ।
पैसा से पद मिले, मिले फिर पद से पैसा ॥
कह काका, यह क्रम न कभी जीवन-भर टूटे ।
नेता वही सफल और सब नेता झूठे ॥

good evening friends

we want strong jan-lokpal bill

Thursday, 22 December 2011

सुप्रभात मित्रों ....... !

good morning friends ,
   Poverty in India: Current Situation
Poverty is one of the main issues, attracting the attention of sociologists and economists. It indicates a condition in which a person fails to maintain a living standard adequate for a comfortable lifestyle.
 Though India boasts of a high economic growth, it is shameful that there is still large scale poverty in India. Poverty in India can be defined as a situation when a certain section of people are unable to fulfill their basic needs. India has the world's largest number of poor people living in a single country. Out of its total population of more than 1 billion, 350 to 400 million people are living below the poverty line. Nearly 75% of the poor people are in rural areas, most of them are daily wagers, landless laborers and self employed house holders. There are a number of reasons for poverty in India. Poverty in India can be classified into two categories namely rural poverty and urban poverty.

जय बोल बेईमान की - काका हाथरसी

मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,
ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।
झूटों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,
जय बोलो बेईमान की !


प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,
टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।
नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,
जय बोल बेईमान की !


महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस
पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।
‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,
जय बोल बेईमान की !


डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,
कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।
धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,
जय बोलो बेईमान की !


दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,
डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।
नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,
जय बोलो बेईमान की !


चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,
आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।
बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,
जय बोलो बईमान की !


वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,
छहसौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,
जय बोलो बईमान की !


खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,
दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।
हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,
जय बोलो बईमान की !


बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,
घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।
अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,
जय बोलो बईमान की !


मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,
मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,
जय बोलो बईमान की !


न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,
जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।
निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,
जय बोलो बईमान की !


पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,
दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।
खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,
जय बोलो बईमान की !


नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,
बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।
गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,
जय बोलो बईमान की !