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Friday, 20 January 2012

हमारे गाँव में बचपन अभी भी मुस्कराता है

हमारे गाँव मे बचपन अभी भी मुस्कराता है।
कहानी रोज दादा अपने पोते को सुनाता है॥


ग़रीबी, भुकमरी, मंहगाई अब जीने नहीं देती,
हमारे गाँव का मंगरू मुझे आकर बताता है॥


ठिठुरता सर्द रातों में बिना कंबल रज़ाई के,
वो अपने पास गर्मी के लिए कुत्ता सुलाता है॥


वो बेवा गाँव में मेरे जो मुफ़लिस(1) है अकेली है,
उसे हर आदमी आसानी से भाभी बनाता है॥


यहाँ क़ानून है अंधा यहाँ सरकार है लंगडी,
है जिसके हाथ मे लाठी वही सबको नचाता है॥


जो पैसे के लिए ईमान खुद्दारी(2) नहीं बेचा,
वही इंसान चौराहे पे अब ठेला लगाता है॥


डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”