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Saturday, 14 July 2012



सुनो भाई

राष्ट्रपति पद के लिए गौर कांग्रेसी उम्मीदवार श्री पूर्णो संगमा ने अपने व्यक्तित्व और व्यवहार से एक विशेष पहचान बनाई है और जो प्रश्न उन्होंने खड़े किए हैं वे वर्तमान भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। दु:ख इस बात का है कि मीडिया और एक राजनीतिक वर्ग उनको वह महत्व नहीं दे रहा है, जिसके वे योग्य पात्र हैं।
संगमा के ये प्रश्न सोचने पर विवश करते हैं कि देश में राजनीतिक संवाद क्यों नहीं होता? प्रणव मुखर्जी ने सात बार देश का बजट प्रस्तुत किया। वित्त मंत्री होने के नाते क्या उनसे यह पूछा नहीं जाना चाहिए कि आदरणीय महोदय, देश के भ्रष्टाचारियों द्वारा जो लाखों-करोड़ों रुपये का काला धन विदेशी बैंकों में जमा किया गया है उसे वापस लाने के लिए आपने क्यो ठोस उपाय किए? देश में बढ़ रही मंहगाई और गरीबी को रोकने के लिए आपने क्या शानदार कदम उठाए? देश में इतना अधिक भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, क्या आपने उसके बारे में कभी आवाज बुलंद की और उसके विरुद्ध किसी बड़े अभियान को सहारा दिया?
भारत का राष्ट्रपति दलीय भेदभाव से परे भारत की महान सांस्कृतिक विरासत का ऐसा प्रतिनिधि होना चाहिए जो सबको साथ में लेकर चल सके और सबका समान रूप से विश्वास अर्जित कर सके। एक जनजातीय और उत्तर पूर्वांचल से आए संगमा के प्रश्न मन को मथने वाले हैं तथा सीधा-सपाट उत्तर चाहते हैं।










































































Monday, 19 March 2012

भ्रष्टाचारियों की रैंकिंग

सबसे पहले चौधरी साहब को बधाई। उन्होंने वर्मा जी को री-प्लेस किया है। कुछ दिन पहले तक वर्मा जी पहले नंबर पर थे। भई, माफ करेंगे! मैं यह गारंटी नहीं दे सकता कि चौधरी साहब ही नम्बर वन रहेंगे।
फिलहाल, यह गारंटी कोई नहीं दे सकता है। सरकार इन लोगों की संपत्ति जब्त कर रही है। अब इनकी रैंकिंग सी तय हो रही है। हां, कुछ दिन बाद हम यह जानने की स्थिति में हो सकते हैं कि बिहार का सबसे बड़ा रिश्वतखोर कौन है? मेरे अलावा बिहार के लिए यह नया ज्ञान होगा।
मैं, लोकसेवकों की कमाई पर शुरू से कंफ्यूजन में हूं। इधर, यह कुछ ज्यादा बढ़ा है। दरअसल, हम सब जमाना नहीं, रेट खराब है, की दौर में जीते रहे हैं। घूस का हिसाब बिल्कुल गड़बड़ा हुआ रहा है। तभी तो डीजी, जमीन का दो-तीन प्लाट से ज्यादा नहीं खरीद पाता लेकिन डीएफओ, शहरी इलाके में 47 क_ïा जमीन का मालिक बन जाता है। हेडक्लर्क पांच हजार से कम पर नहीं बिकता मगर सीओ की कीमत बमुश्किल 500 रुपए रही है।
राजग-2, बिहार विशेष न्यायालय विधेयक 09 की राष्टरपति से स्वीकृति के बाद भ्रष्टïाचारियों की संपत्ति जब्त करने का अधिकारी बना है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान कर चुके हैं। भ्रष्टों की चर्बी उतारने की बात कह रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में लगभग सब कुछ लगातार खुले में आ रहा है। रिश्वतखोरों के बारे में मेरा ज्ञान लगातार बढ़ रहा है। आप भी लाभान्वित होईये।
मैं, आज तक तय नहीं कर पाया था ये जनाब (लोकसेवक) आखिर वेतन की एवज में काम कब करते हैं? घूस लेने और उसे सेट करने से समय बचता है? अब पता चल रहा है कि वे बेजोड़ फंड मैनेजर हैं। घूस के रुपये का बेहतरीन नियोजन करते हैं। इंदिरा आवास के लिए रुपये लेते हैं। इससे शेयर खरीदते हैं, फिक्स डिपाजिट करते हैं। और आखिर में करोड़पति बनते हैं।
मैं आज तक यह भी नहीं जान पाया कि आखिर एक लोकसेवक खुद को बेचकर कितना कमा सकता है? इसका मुनासिब हिसाब गड़बड़ा हुआ रहा है। जांच एजेंसियां बड़ी संकट में रहीं। वे चाहकर भी भ्रष्टïाचारियों की रैंकिंग नहीं कर पाईं। कई तरह की कठिनाई है। वर्मा जी या सिन्हा जी की फाइल क्लोज होने वाली ही होती है कि पता चलता है कि अमुक शहर में भी उनकी बीस लाख की संपत्ति है।
कौन, कितना जिम्मेदार है? व्यवस्था के सिर ठीकरा फोड़ समाज-परिवार अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो सकता है? किसने नियोजित तरीके से इस आम मानसिकता को मार डाला, जो मौका मिलते ही किसी को भी लूट को उद्यत कर देती है; जिसकी बाकायदा सामाजिक मान्यता है और जो ईमानदारी को अजीबोगरीब तरीके से परिभाषित किये हुए है-ईमानदार वही है, जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिला।
भई, मैं तो देख रहा हूं। खून में समाई रिश्वतखोरी की सामाजिक-पारिवारिक स्वीकृति हर स्तर पर परिलक्षित है। शादियों के मौसम में यह शान-शौकत के रूप में साफ दिखती। टूटी साइकिल पर घूमने वाला व्यक्ति मुखिया बनते ही कैसे स्कोर्पियो सवार बन जाता है?
स्पेशल विजिलेंस यूनिट के एक बड़े अफसर बता रहे थे-भ्रष्टïाचारी को दबोचना पानी पीती मछली को पकडऩे जैसा मुश्किल काम है। भ्रष्टïाचारी को पनाह देने, मनोबल बढ़ाने के नमूनों या तरीकों की कमी रही है? चारा, दवा, अलकतरा घोटाला …, बेशक, घोटालों का प्रदेश के रूप में बदनामी पाये इस प्रदेश में चुनौतियों के मोर्चों की कमी नहीं है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, सत्ता संभालने के बाद से काली कमाई करने वालों का पानी उतारने में लगे है। दूसरी मर्तबा शासन संभालने के बाद वे और तल्ख हैं। उनके तेवर, कामयाबी के आगाज हैं और यही हर बिहारी की कामना है। देश, भी बिहार की तरफ देख रहा है। ................-Madhureshb

महिला सुरक्षा का नया फरमान – नारी हित की चाह या सुरक्षा तंत्र की नाकामी?


हाल ही में गुड़गांव के एक पब में काम करने वाली महिला जब देर रात अपने काम से घर लौट रही थी तो उसे अगवा कर गैंग रेप किया गया। इस घटना के बाद हरियाणा पुलिस के डिप्टी कमिश्नर ने पंजाब शॉप्स एंड कमर्शियल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट 1958 लागू कर सभी वाणिज्यिक संस्थानों को यह निर्देश जारी कर दिया कि अगर वह अपनी महिला कर्मचारियों से रात को आठ बजे के बाद काम करवाते हैं तो उन्हें पहले श्रम विभाग से इसके लिए अनुमति लेनी होगी।

यूं तो दिन के समय भी महिलाएं खुद को सुरक्षित नहीं मान सकतीं लेकिन रात के समय उनके साथ होने वाली बलात्कार और छेड़छाड़ जैसी आपराधिक वारदातें और अधिक बढ़ जाती हैं। महिलाओं को सुरक्षित वातावरण उपलब्ध करवाने में हमारे पुलिसिया तंत्र की असफलता किसी से छिपी नहीं है। हाल ही में गुड़गांव का एक ऐसा मामला सामने आया है कि जिसके बाद पुलिस और प्रबंधन की नाकामी में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। देर रात महिला के साथ गैंगरेप जैसी घृणित वारदात के बाद पुलिस ने यह फरमान जारी कर दिया है कि अगर रात को आठ बजे के बाद महिलाओं से काम करवाना है तो पहले श्रम विभाग से अनुमति लेनी होगी।

मीडिया और महिला आयोग पुलिस के इस फरमान की कड़ी आलोचना कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह कदम यह साफ प्रमाणित करता है कि जिन लोगों के हाथ में हमारी सुरक्षा का जिम्मा है वह खुद अपनी हार मान चुके हैं। इनके हिसाब से तो अगर रात को आठ बजे के बाद किसी महिला के साथ बलात्कार होता है तो इस घटना की जिम्मेदार वह स्वयं होगी। यह अधिनियम महिलाओं को सुरक्षा का आश्वासन देने के स्थान पर उनके काम को और मुश्किल बना देगा। आज की महिलाएं पुरुषों के समान मुख्यधारा में शामिल होने के लिए प्रयत्न कर रही हैं तो ऐसे में उनकी सुरक्षा की गारंटी लेने की बजाय उनके अधिकारों पर चोट करना कहां तक सही है?

वहीं दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं जो महिलाओं की सुरक्षा के लिए पुलिस द्वारा उठाए गए इस कदम की सराहना कर रहे हैं। बहुत से लोगों का मानना है कि महिलाओं का देर रात तक बाहर रहना अपराध को दावत देने जैसा है। इन लोगों का तर्क है कि महिलाओं को सबसे पहले अपनी सीमाएं निर्धारित करनी चाहिए। यौन-उत्पीड़न और आपराधिक वारदातों पर लगाम लगाने के लिए स्वयं महिलाओं को ही आगे आना पड़ेगा, हर समय पुलिस और प्रबंधन पर आरोप लगाना युक्तिसंगत नहीं है।

उपरोक्त चर्चा के आधार पर कुछ गंभीर सवाल उठते हैं, जिन पर विचार किया जाना नितांत आवश्यक है:
1क्या हमारा सुरक्षा तंत्र महिलाओं की सुरक्षा करने में पूरी तरह असफल हो चुका है?
2. अगर किसी महिला के साथ बलात्कार होता है तो क्या वह स्वयं इसके लिए जिम्मेदार है, इस घटना का दोष पुरुष को नहीं दिया जाना चाहिए?
3. क्या पंजाब शॉप्स एंड कमर्शियल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट 1958 लागू करने के बाद रात आठ बजे से पहले महिलाएं खुद को सुरक्षित मान सकती हैं?
4. क्या पुलिस और सुरक्षा प्रबंधन इस बात की गारंटी लेते हैं कि अब दिन के समय कोई महिला किसी दरिंदे की घृणित मानसिकता का शिकार नहीं होगी?

Sunday, 18 March 2012

अमीर नेता गरीब जनता

कैसी विडंबना है कि स्वतँत्र भारत मेँ शासन करने वाले गठबंधन यूपीए की अध्यक्षा , सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठी सोनिया गाँधी 45 हजार करोड़ रुपये की संपति की मालकिन है । वह दुनिया की चौथे नंबर की सबसे रईस राजनेता है । आज देश मेँ करोड़पति राजनेताओँ की तो भरमार है । चीन के बाद भारत दूसरा सर्वाधिक जनसँख्या वाला देश है । यहाँ के किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैँ । करोड़ों लोग भयंकर गरीबी में पशुओँ से बदतर जिन्दगी जीने को विवश हैं । बच्चे कुपोषण के शिकार हैं । राजनीतिक , मंत्री , साँसद , विधायक , नौकरशाह तो अरबपति तथा करोड़पति हैं ही अन्य छोटे कर्मचारी भी करोड़ोँ के वारे न्यारे करने मेँ पीछे नहीँ हैँ । यह कैसी देशसेवा है । जिसका दाव लगता है वही दोनोँ हाथोँ से देश को लूट रहा है । जीवन का एकमात्र लक्ष्य अकूत धनसंपदा का संग्रह करना बन गया है । जिस देश के तथाकथित जनता के सेवक सबसे अमीर हो और जनता भूखी मरे तो लानत है जनसेवकोँ की ऐसी अमीरी पर । राजनीतिक दलोँ में एक पदाधिकारी से लेकर सरकार चलाने वाले मंत्री तक सभी अपनी विश्वसनीयता खोते चले जा रहे हैं । अश्लील वीडियो देखने वाले तथा दागी मंत्रियोँ की टीम लेकर तो अनैतिकता और भ्रष्टाचार के अध्याय ही लिखे जा सकते हैं । विकास का अर्थ केवल भौतिक विकास ही नहीँ होता । प्रकृति तथा पर्यावरण को तहस नहस कर विनाश को बढ़ावा दिया जा रहा है । मनुष्य का भी सर्वाँगीण विकास होना चाहिए । नेतृत्व का काम होता है स्वयं को आदर्श के रूप मेँ स्थापित करके देशवासियोँ का स्वाभिमान जागृत करना । लेकिन आज देश की सभी व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है । शिक्षा का अवमूल्यन कर संस्कार शून्य , देशभक्ति तथा स्वाभिमान रहित नई पीढ़ी का निर्माण किया जा रहा है । पहले विदेशियोँ ने लूटा , अब लुटेरे डाकू अपने ही देश मेँ पैदा हो रहे हैँ । लोकतंत्र के नाम पर यह सब खूब मजे से सुरक्षा के आवरण मेँ रहकर किया जा रहा है । एक ऐसे कुत्सित संवैधानिक ताने बाने मेँ देश को उलझाया जा रहा है जिसमेँ इस देश का बहुसंख्य समाज मजबूर होकर केवल अपनी बरबादी का तमाशा देखे । यह देश विदेशी षड्यंत्रकारियोँ का अखाड़ा बनता जा रहा है जहां ग्लोबलाईजेशन के नाम पर बाजार में विदेशी उत्पादोँ को खपाकर उद्योगोँ को चौपट कर बेरोजगारी को बढ़ाया जा रहा है ।
खुदरा बाजार को भी विदेशी कंपनीयोँ के हवाले करने का देशद्रोही काम किया जा रहा है । देश भयानक समस्याओँ के घिरकर असुरक्षा के दौर में है । ऐसे विकट समय मेँ एक दृढ़ इच्छाशक्ति वाले राष्ट्रवादी नेतृत्व की आवश्यकता होती है । लेकिन दुर्भाग्यवश आज हमारे देश मेँ कोई भी राजनैतिक दल इस कसौटी पर खरा नहीँ उतरा है । सत्तालिप्सा , जातिवाद, अल्पसँख्यक तुष्टिकरण तथा छद्म धर्मनिरपेक्षता की आड़ मेँ वोट बैंक का खेल बदस्तूर जारी है । भ्रमित मतदाता अपना वोट दे तो किसे । हाल ही मेँ हुए विधानसभा चुनावोँ में बड़े राष्ट्रीय दलोँ की हार ने देश के सामने उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है । बिना मजबूत राजनैतिक नेतृत्व के कोई भी देश अपने स्वाभिमान की रक्षा नहीँ कर सकता । मतदाताओँ को भी क्षेत्रवाद से उपर उठकर राष्ट्रीय दलोँ के उम्मीदवारों का चुनाव करना चाहिए ।
अपनी प्राचीन संस्कृति , दर्शन व विचार पर आधारित जीवन मूल्योँ को स्थापित किए बिना हम आगे नहीँ बढ़ सकते । यह विचार जिस दिन भारतीय राजनीति का मूलाधार बनेगा उसी समय यह देश अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करते हुए विकास पथ पर आगे बढ़ना प्रारंभ कर देगा । इसी मेँ ही भारत के साथ साथ सम्पूर्ण विश्व तथा मानवता की भी भलाई है ।
——————–
- सुरेन्द्रपाल वैद्य 

बेरोजगार ”




मेरी विफलता को जैसे विवशता की कढाई मे ,
उलाहना रूपी तेल मे निरंतर तला जा रहा है ,
आंसुओं का लावा मेरे नैनों को गला रहा है ,
*************
मेरा अस्तित्त्व शुन्य से भी बदतर है !
वक़्त का चाकू मुझे मारता ही नहीं कम्बखत ,
हर बार एक बड़ा सा घाव बना देता है ,
***** ********
और जैसे ही उबरने को होता हूँ इस पीड़ा से ,
चमचमाती साड़ी पहने सफलता ,
मुस्कराहट के कोड़े से ,
मुझे जी भर  कर पीटती है !
**********
दुर्भाग्य की खाई इतनी गहरी है की ,
योग्यता की सीढ़ी पर थककर बैठ गया हूँ मै ,
लगता है जैसे तनाव की एक हल्की पैनी सुई ,
मेरे मष्तिष्क को गुब्बारे की तरह फाड़ देगी !
*************
सब कुछ धुंधला सा हो रहा है अब ,
मै अति प्यासा व्याकुल पागल हुआ ,
विचारो के तेजी से चलते वाहनों के बीच ,घिरता , गिरता , उठता ,
समेट रहा हूँ चाबुको के निशान , जले हुए आंसू ,
सूखे घावो की पपड़ियाँ , अपने अस्तित्व का तिनका !
************
मै कच्ची माटी का पुतला ,
टनों वजनी इस दुख से बस ढहने को हूँ ,
मै हूँ बेरोजगार !
*******
Chandan Rai

Saturday, 17 March 2012

हिन्दुस्तानी हो, हिन्दुस्तानी बनो!

कई दशाब्दियों से रेलगाडी यात्रा मेरे लिये जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका है. इन यात्राओं के दौरान कई खट्टेमीठे अनुभव हुए हैं, जिनमें मीठे अनुभव बहुत अधिक हैं. इसके साथ साथ कई विचित्र बाते देखने मिलती हैं जिनको देखकर अफसोस होता है कि लोग किस तरह से विरोधाभासों को पहचान नहीं पाते हैं.
उदाहरण के लिये निम्न प्रस्ताव को ले लीजिये: बी इंडियन, बाई इंडियन. यह प्रस्ताव अंग्रेजी में या हिन्दी में अकसर दिख जाता है. अब सवाल यह है कि इसे सीधे सीधे भारतीय अनुवाद में क्यों नहीं दे दिया जाता है. “हिन्दुस्तानी हो, हिन्दुस्तानी बनो” (जो इस अंग्रेजी वाक्य का भावार्थ है) हिन्दी में कहने में हमें तकलीफ क्यों होती है. हिन्दुस्तानियों को हिन्दुस्तानी बनाने के लिये एक विलायती भाषा की जरूरत क्यों पडती हैं?
दूसरी ओर, जब “बी इंडियन, बाई इंडियन” लिखा दिखता है तो कोफ्त होती है कि यह किसके लिये लिखा गया है? अंग्रेजीदां लोग तो इसे पढने से रहे क्योंकि उनकी नजर में तो हिन्दी केवल नौकरोंगुलामों की भाषा है. आम हिन्दीभाषी जब इसे पढता है तो उसके लिये इसका भावार्थ समझना आसान नहीं है. उसे लगता है कि यहां खरीदफरोख्त की बात (बाई Buy) हो रही है.
जरा अपने आसापास नजर डालें. कितने विरोधाभास हैं इस तरह के. कम से कम दोचार को सही करने की कोशिश करें! - सारथी

(Are Beggars Also Human??)

Friday, 20 January 2012

हमारे गाँव में बचपन अभी भी मुस्कराता है

हमारे गाँव मे बचपन अभी भी मुस्कराता है।
कहानी रोज दादा अपने पोते को सुनाता है॥


ग़रीबी, भुकमरी, मंहगाई अब जीने नहीं देती,
हमारे गाँव का मंगरू मुझे आकर बताता है॥


ठिठुरता सर्द रातों में बिना कंबल रज़ाई के,
वो अपने पास गर्मी के लिए कुत्ता सुलाता है॥


वो बेवा गाँव में मेरे जो मुफ़लिस(1) है अकेली है,
उसे हर आदमी आसानी से भाभी बनाता है॥


यहाँ क़ानून है अंधा यहाँ सरकार है लंगडी,
है जिसके हाथ मे लाठी वही सबको नचाता है॥


जो पैसे के लिए ईमान खुद्दारी(2) नहीं बेचा,
वही इंसान चौराहे पे अब ठेला लगाता है॥


डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”

Friday, 30 December 2011

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है / अदम गोंडवी

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

Saturday, 24 December 2011

स्वतंत्रता दिवस की पुकार / अटल बिहारी वाजपेयी

पन्द्रह अगस्त का दिन कहता -
आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं,
रावी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर
आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश
ग़म की काली बदली छाई॥

कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के
बारे में क्या कहते हैं॥

हिन्दू के नाते उनका दुख
सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो
सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

इंसान जहाँ बेचा जाता,
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,
डालर मन में मुस्काता है॥

भूखों को गोली नंगों को
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी
नारे लगवाए जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूँ
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आजादी पर्व मनाएँगे॥

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से
कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ,
जो खोया उसका ध्यान करें॥

Who is to blame for poverty in Africa?

In the forward to this year's Africa Progress Report, Kofi Annan puts the emphasis on African leaders to improve poverty levels and meet Millennium Development Goal commitments. But will his words have impact?

"Good governance and accountability will determine Africa's future."
This is the standout statement in the Africa Progress Report 2010 (APR), published by the Africa Progress Panel (APP) last week.
Formed in 2005 in the wake of the Gleneagles G8 summit, the APP seeks to promote "Africa's development by tracking progress, drawing attention to opportunities and catalysing action".
In terms of Africa's progress, the report had much to boast about: the last decade ushered in economic growth across much of the continent. Kofi Annan, former UN secretary general and chairman of the APP, described Africa as "a new economic frontier", thanks to continued discoveries of natural resources, an ever-growing list of new partners, such as China and the steady rise in domestic revenues, foreign direct investment, remittances and official development assistance (ODA) – or aid.
But these achievements have not eradicated Africa's ills and the report set out to address why.
"Why does progress on achievement of the Millennium Development Goals (MDGs) remain so low, so uneven? Why do the absolute and relative numbers of people living in poverty remain so high? Why do so many people face food and nutrition, joblessness and minimal access to basic services such as energy, clean water, healthcare and education? Why are so many women marginalised and disenfranchised? And why is inequality increasing?" Annan asked in the forward to the report.
He concluded that the root causes of Africa's problems were a lack of political will and the inability of the continent's leaders to use revenues to benefit the people.
"Responsibility for driving equitable growth and for investing in achievement of the MDG targets rests firmly with Africa's political leaders," Annan added.
It's not the first time this sentiment has been expressed, but will Annan's words and the central message of this report have more impact because of who they are being directly aimed at? This report is written with African leaders - in government, business and civil society – very much in mind.
Support for development and Africa's economic success have both been hit by the economic crisis. The crisis, says the report, "highlighted a number of worrisome trends... such as growing inequality, setbacks in achieving MDGs, vulnerability... concerns that economic contraction squeezes out commitment to human development". In the downturn, the need for good governance to mitigate the damage becomes essential and Africa leaders have been shown to be wanting.
While the report continues to call on donors to uphold their MDG commitments and the Gleneagles declarations (speaking of which, the point about aid commitments appears to have been left off the draft communiqué for this month's G8 summit) and emphasises the numerous agreements signed by the continent's leaders to improve transparency, accountability and pro-poor growth in Africa, the key message is that there needs to be greater political will to achieve long-term success.
But if development is a question of political will, then Africa needs political transformation fast. But this won't be easy.

काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में / अदम गोंडवी

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

सुधार पर हावी सियासत

मेरे पुराने मित्र मनमोहन सिंह इस वक्त आखिर क्या सोच रहे होंगे? क्या अब समय आ गया है कि वे भारत के प्रधानमंत्री पद के दायित्व से मुक्त हो जाएं और 40 वर्षो की शीर्षस्तरीय लोकसेवा के बाद रिटायरमेंट ले लें? या क्या उन्हें और सोनिया गांधी के कांग्रेस-नीत गठबंधन को इस उम्मीद में मध्यावधि चुनाव करा लेना चाहिए कि शायद युवा राजनेता सामने आएं और अपने ताजगीभरे विचारों के साथ भारत को २१वीं सदी की आकांक्षाओं और संभावनाओं तक ले जाएं? ये तमाम सवाल हाल की घटनाओं के बाद उठे हैं।

मनमोहन सिंह ने प्रस्ताव रखा था कि 500 अरब डॉलर कीमत के विशाल भारतीय रिटेल बाजार को सौ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल दिया जाए, लेकिन कुछ ही दिनों बाद उन्हें यू-टर्न लेते हुए अपने इस विचार को त्यागना पड़ा। यहां चिंता का विषय रिटेल सेक्टर नहीं होना चाहिए। न ही चिंतनीय पक्ष यह है कि भारत सभी विदेशी निवेशकों के लिए अपने दरवाजे बंद कर देगा। चिंतनीय मसला राजनीतिक है।

आखिर ऐसा कैसे संभव है कि एक ऐसी सरकार, जिसके पास पर्याप्त बहुमत है, राजनीतिक परिदृश्य के साथ ही अपने ही खेमे में मौजूद विपक्षी स्वरों को भी पहचान नहीं सकी? जो सरकार इतने कम अंतराल में अपने इरादों से पीछे हट सकती है, उस पर आखिर कितना भरोसा किया जा सकता है?

बहुराष्ट्रीय उत्पादों से लदे चमचमाते शॉपिंग मॉल्स का जादू निश्चित ही भारत के बड़े शहरों और उनके उपनगरों के सिर चढ़कर बोल रहा है। महानगरों के बाहर भारत का खुला बाजार भी असीमित अवसरों और संभावनाओं से भरा पड़ा है। इनमें क्षति की संभावनाएं भी कम नहीं हैं।

भारत के योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलुवालिया अनुमान लगाते हैं कि भारत की ४क् फीसदी खाद्य सामग्री बाजार तक पहुंचते-पहुंचते ही खराब हो जाती है और इसकी वजह है खराब सड़कें और अनुपयुक्त स्टोरेज। इसीलिए इस विचार ने बल पकड़ा था कि विदेशी निवेशकों को निमंत्रित कर क्वालिटी कंट्रोल की दिशा में प्रयास किए जाएं, ताकि उपभोक्ताओं तक अच्छी गुणवत्ता का उत्पाद पहुंच सके और किसानों को भी अच्छा रिटर्न मिले।

इस विचार का विरोध करने वालों ने जो भयावह तस्वीर पेश की, वह यह थी कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का एक आधुनिक संस्करण भारत को लूटने-खसोटने के लिए उसकी ओर कूच कर रहा है। यह हास्यास्पद था। बड़े विदेशी निवेशकों की तात्कालिक प्रतिक्रिया यह थी कि कहीं सौ फीसदी एफडीआई का प्रस्ताव भी लाल फीते की चपेट में न आ जाए। आखिर यही हुआ।

खेत से बाजार तक खाद्य सामग्री पहुंचने की प्रक्रिया रॉकेट साइंस की तरह जटिल नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भारतीय विदेशियों की तुलना में यह ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं कि यदि आपको पता न हो कि किसान अपने खेतों में क्या उगा रहे हैं तो यह सरल-सी प्रक्रिया भी बड़ी दुष्कर सिद्ध हो सकती है।

इसकी वजह है किसानों की आर्थिक तंगी, मानसून पर निर्भरता, खराब सड़कें और बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं का चिंतनीय अभाव। भारत सांस्कृतिक और भाषिक बहुलता वाला एक विशाल और जटिल देश है। यहां ३क् करोड़ लोगों का मध्यवर्ग जहां २१वीं सदी के फैशन और उत्पादों के लिए लालायित है, वहीं एक बड़ा वर्ग उन लोगों का भी है, जिन्हें अपना अस्तित्व बचाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है और प्राथमिक स्तर की शिक्षा की चिंतनीय स्थिति के कारण वे अपने लिए अच्छी नौकरियां नहीं तलाश पाते।

इस दलील में कोई दम नहीं है कि विदेशी निवेशकों के कारण भारत की रिटेल क्रांति को एक प्रतिस्पर्धात्मक स्वरूप मिलेगा। भारत को बहुत बुनियादी चीजों पर काम करने की जरूरत है, जैसे सड़कें, शिक्षा, बिजली, किसानों का सशक्तीकरण, ताकि बिचौलिये उन्हें छल न सकें।

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के कारण भारत के बुनियादी ढांचे में कुछ सुधार आ सकता था। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि भारत की राजनीति में जिन मध्यस्थों का वर्चस्व है, उन्होंने इस पूरी बहस को हाइर्जैक कर लिया। उन्होंने खुद को किराना दुकानों के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन वे यह भूल गए कि देश के सबसे गरीब देहाती इलाकों में इस तरह की दुकानें तक नहीं हैं।

वहीं वे यह भी भूल गए कि भारत के उपभोक्ता बेहतर सेवाएं और श्रेष्ठ सस्ते उत्पाद पाना चाहते हैं। विदेशी निवेश पर राजनीतिक निर्णयों को उन्हीं मध्यस्थों द्वारा प्रभावित किया गया, जो जाति, क्षेत्र, धर्म के आधार पर सियासत करते हैं और अपनी जेबें भरते हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री ने उनके सामने घुटने टेक दिए और देश में सुधारों का पथ प्रशस्त करने के अपने प्राथमिक दायित्व को तिलांजलि दे दी।

मैं उन्हें पिछले चालीस सालों से जानता हूं, जब वे सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे। यह एक अर्थशास्त्री और राजनयिक के लिए शीर्ष पद जरूर हो सकता है, लेकिन एक राजनेता के लिए नहीं। भारत के वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने आर्थिक सुधारों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

वे भद्र व्यक्ति हैं और संभवत: नौकरशाही की नकेल कसने में भी सक्षम हैं, लेकिन वे भ्रष्टाचार के उस परिवेश में खुद को अपरिचित महसूस करते हैं, जो अब भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली का हिस्सा बन चुका है। हाल के दिनों तक मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी का पूर्ण राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था। लेकिन विचित्र बात है कि एकाध अवसरों को छोड़ दें तो सोनिया गांधी ने अमेरिका से अपना इलाज कराकर लौटने के बाद से ही सुर्खियों में जगह नहीं बनाई है।

रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर जो स्थिति बनी, उससे यह भी जाहिर हुआ है कि मनमोहन सिंह अब थक रहे हैं और समय आ गया है कि सोनिया के पुत्र राहुल गांधी और उनके युवा साथी अपनी योग्यता सिद्ध करें। लेकिन यह भी विचित्र बात ही है कि राहुल गांधी, जो कि कांग्रेस के महासचिव भी हैं, भी चुप्पी साधे हुए हैं। -लेखक विश्व बैंक के पूर्व मैनेजिंग एडिटर व प्लेनवर्डस मीडिया के एडिटर इन चीफ हैं।

- केविन रैफर्टी